DURABHISANDHI (KRISHNA KI ATMAKATHA -II) (Hindi Edition)
Manu Sharmaमेरी अस्मिता दौड़तीरही, दौड़ती रही। नियति की अँगुली पकड़कर आगे बढ़ती गई-उस क्षितिज की ओर, जहाँ धरतीऔर आकाश मिलते हैं। नियति भी मुझे उसी ओर संकेत करती रही; पर मुझे आज तक वह स्थान नहींमिला और शायद नहीं मिलेगा।फिर भी मैं दौड़ता रहूँगा; क्योंकि यही मेरा कर्म है। मैंनेयुद्ध में मोहग्रस्त अर्जुन से ही यह नहीं कहा था, अपितु जीवन में बारबार स्वयं सेभी कहता रहा हूँ-‘कर्मण्येवाधिकास्ते’।
वस्तुतः क्षितिज मेरागंजव्य नहीं, मेरे गंजव्य का आदर्श है। आदर्श कभी पाया नहीं जाता। यदि पा लिया गयातो वह आदर्श नहीं। इसीलिए न पाने की निश्चिंतता के साथ भी कर्म में अटल आस्था ही मुझेदौड़ाए लिये जा रही है। यही मेरे जीवन की कला है। इसे लोग ‘लीला’ भी कह सकते हैं;क्योंकि वे मुझे भगवान मानते हैं।... और भगवान का कर्म ही तो लीला है।
कृष्ण के अनगिनत आयामहैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लिया गया है। किंतु आठ खंडोंमें विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला ‘कृष्ण की आत्मकथा’ में कृष्ण को उनकी संपूर्णताऔर समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसी भी भाषा में कृष्णचरित कोलेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं किया है।
यथार्थ कहा जाए तो‘कृष्ण की आत्मकथा’ एक उपनिषदीय कृति है।
‘कृष्ण की आत्मकथाश्रृंखला के आठों ग्रंथ’
नारद की भविष्यवाणी
दुरभिसंधि
द्वारका की स्थापना
लाक्षागृह
खांडव दाह
राजसूय यज्ञ
संघर्ष
प्रलय